राजनीति की गंगा कैसे निर्मल बने

 सर्वोच्च अदालत ने अपने नवीनतम फैसलों में कैदियों के चुनाव लड़ने के अधिकार की व्याख्या करते हुए महत्त्वपूर्ण व्यवस्थाएं दी हैं। दो वर्ष से अधिक कारावास की सजा पाते ही जनप्रतिनिधि उस सदन की सदस्यता के अयोग्य हो जाएंगे जिसके वे सदस्य थे। जेल या पुलिस की हिरासत में होने के दौरान कोई भी व्यक्ति चुनाव नहीं लड़ सकेगा। दोनों निर्देशों ने जनप्रतिनिधित्व कानून के कई प्रावधानों को फिर से लिखने की आवश्यकता पैदा की है।
प्रबुद्ध वर्ग इन फैसलों में राजनीति को साफ-सुथरा बनाने और लोकतांत्रिक व्यवस्था को अपराधियों के चंगुल से मुक्त कराने की मुहिम की उमंग ढूंढ़ रहा है। कुछ नवोदित राजनीतिक दलों के अति उत्साही भावी राजनेता इन आदेशों को अपनी विचारधारा की विजय बता रहे हैं। पहले से स्थापित राजनीतिक दलों की प्रतिक्रिया संयमित है। उनके प्रवक्ता फैसलों के विस्तृत अध्ययन के बाद ही इन फैसलों के गुण-दोष की परीक्षा करने की बात कह रहे हैं। अलबत्ता चुनाव आयोग ने शीर्ष अदालत के फैसलों का स्वागत किया है। कैमरे के सामने सारे राजनेता इन आदेशों को अच्छा बता रहे हैं। पर वास्तव में उनकी व्यक्तिगत राय में इन फैसलों में अनेक राजनीतिक पेच छिपे हैं जिनके दूरगामी परिणाम होंगे। राजनीतिक हलकों में चर्चा है कि इन निर्देशों के विरुद्ध अपील दायर की जा सकती है।
आम आदमी इन फैसलों को लेकर तटस्थ है। उसे इससे फर्क नहीं पड़ने वाला है कि शासक कौन है? उसकी रोजमर्रा की जिंदगी में संभवत: इन फैसलों की कोई अहमियत नहीं है। एक परिपक्व होते लोकतंत्र में फैसलों पर चर्चा और आलोचना स्वस्थ व्यवस्था के लिए अत्यंत जरूरी है।